रविवार, नवंबर 25, 2012

निष्पक्ष सिर्फ पत्थर हो सकता है: अशोक कुमार पाण्डेय













तुमने मेरी उंगलियाँ पकड़कर चलना सिखाया था पिता
आभारी हूँ, पर रास्ता मैं ही चुनूँगा अपना
तुमने शब्दों का यह विस्मयकारी संसार दिया गुरुवर
आभारी हूँ, पर लिखूँगा अपना ही सच मैं

मैं उदासियों के समय में उम्मीदें गढ़ता हूँ और अकेला नहीं हूँ बिल्कुल
शब्दों के सहारे बना रहा हूँ पुल इस उफनते महासागर में
हजारों-हजार हाथों में, जो एक अनचीन्हा हाथ है, वह मेरा है
हजारों-हजार पैरों में, जो एक धीमा पाँव है, वह मेरा है
थकान को पराजित करती आवाजों में एक आवाज मेरी भी है शामिल
और बेमकसद कभी नहीं होतीं आवाजें ...

निष्पक्ष सिर्फ पत्थर हो सकता है, उसे फेंकने वाला हाथ नहीं
निष्पक्ष कागज हो सकता है, कलम के लिए कहाँ मुमकिन है यह?

मैं हाड़-मांस का जीवित मनुष्य हूँ
इतिहास और भविष्य के इस पुल पर खड़ा नहीं गुजार सकता अपनी उम्र
नियति है मेरी चलना और मैं पूरी ताकत के साथ चलता हूँ भविष्य की ओर।

(अशोक कुमार पाण्डेय की यह खूबसूरत कविता आज दिनांक 25 नवम्बर 2012 के अमर उजाला में प्रकाशित हुई है, साभार। अशोक कुमार पाण्डेय का कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ प्रकाशित हो चुका है और चर्चा में है)