मंगलवार, नवंबर 29, 2011

लड़की मत देखो आसमान : कांता सुधाकर

थोड़े समय पहले मेरी कान्ता भाभी से मुलाकात हुई--लगभग 30 -32 सालों बाद. मेरे शुरूआती साहित्यिक संस्कार जिन लोगों की देख रेख में बने और विकसित हुए हैं,कान्ता भाभी मेरे जीवन के उन विशिष्ट लोगों में एक हैं.अपने छात्र जीवन में एक नाटक में उनकी तलत महमूद सरीखी कांपती हुई मोहक आवाज सुन के मैं उन तक खिंचा चला गया था.इस बार की मुलाकात में उन्होंने अपनी किताब पढने को दी तो मैं रोमांचित हो गया....मुझे वो जमाना गया जब रसोई में काम करते हुए कभी किसी कागज पर तो कभी किसी कागजी थैले पर वो मन की बातें लिख दिया करती थी...
इस संग्रह से कुछ कवितायेँ मैं आपके पाठकों तक पहुंचाने का लोभ संवरण नहीं कर पा रहा हूँ....उम्मीद है ये कवितायेँ आपको भी वैसे ही पसंद आयेंगी जैसे मुझे आयीं... पाठक उनसे संपर्क करना चाहें,मैं उनके लिए फोन नंबर दे रहा हूँ...9470101657
-यादवेन्द्र

सीख
लड़की
मत देखो आसमान
सितारे उतर आएँगे
आँखों में

लड़की
मत निहारो फूलों को
टँक जाएँगे बालों में।

पर्वतों के पार जो
उगा बड़ा-सा सूरज अभी-अभी
तुम्हारी हँसी देखने को
रुक जाएगा
ठहर जाएगा अब
इसी घाटी में।

लड़की
रुक जाओ
थम जाओ
किसी नदी का रुख
मुड़ न जाए कहीं
तुम्हारे गीतों से।

इसीलिए
रुक जाओ
थम जाओ
किसी नदी का रुख
मुड़ न जाए कहीं
तुम्हारे गीतों से।

इसीलिए
वापस हो जाओ
सुरक्षित रहो हमारी
निषेधों की दुनिया में।

क्योंकि
अच्छा हुआ
कि मैं सीता नहीं
तुम राम नहीं
केवल मनुष्य हैं हम।

अग्नि-परीक्षा
लेते नहीं
देते नहीं
क्योंकि हमें
एक-दूसरे से प्यार है बहुत,

क्योंकि हमें
एक-दूसरे से प्यार है बहुत।

क्योंकि हमें
इतिहास बनने के लिए
नहीं करनी है कोई लीला।

अच्छा है
अच्छा है
बहुत अच्छा है,
कि बादल
कभी बिकता नहीं
किसी बाजार में।

अच्छा है
बहुत अच्छा है
कि हवा
कभी रुकती नहीं
किसी के लाॅन में।

अच्छा है,
बहुत अच्छा है,
कि झरना
कभी गिरता नहीं
किसी के फार्म मंे।

अच्छा है,
बहुत अच्छा है,
कि धूप
कभी टिकती नहीं
किसी परदेशी के प्लान में
अच्छा है,
बहुत अच्छा है,
कि
बादल,
हवा,
धूप,
झरना
कभी जाते नहीं
किसी के पर्सनल एकाउंट में,
नहीं तो
पता नहीं
कहाँ जाते
दुनिया के
बिन खाते के बाकी जीव।

शनिवार, नवंबर 26, 2011

पगडंडियाँ बनाता प्रेम : चार कविताएँ

प्रेम
एक शरारती
जंगली खरगोश
अपनी झलक-भर दिखाकर
छिप जाता
खो जाता - अन्तर्बाह्य के विस्तारों में
एक चाह कि छू लें उसे।

बना लेना चाहते हैं
उसकी नर्म खाल के गर्म दस्ताने।
बरसों
वह थकाता
पर अन्ततः दबोच लिया जाता
सहलाया जाता - दोहराए जाते स्पर्श
बिना जाने, बिना देखे
उसका काला पड़ता हुआ रंग।


पगडंडियाँ बनाता प्रेम
पगडंडियाँ बनाता है प्रेम
पगडंडियाँ
जो पहुँचती हैं
नदी तक
नदी
जिसमें पगडंडियाँ नहीं होतीं।


बहुत दिनों बाद
पत्थरों का सीना चीरकर
अँकुरा आया है चीड़
तुम्हारी याद आयी।


तुम्हारी रोशनी में
आकाश का कुछ खो गया है
जिसे वह ढूँढ़ रहा है सदियों से
सूरज की रोशनी में

मैं तुम्हारी रोशनी में
ढूँढ़ता हूँ
अपना चेहरा।