गुरुवार, फ़रवरी 17, 2011

हम देखेंगे : फ़ैज़ अहमद फ़ैज़



हम देखेंगे

हम देखेंगे
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो नौह-ए-अजल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे
सब तख़्त गिराए जाएँगे
बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो वायब भी है हाज़िर भी
जो नाज़िर भी है मंज़र भी
उट्ठेगा अनल-हक का नारा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्के-खुदा
जो मैं भी हूँ और तुम भी हो

नौह-ए-अजल = काल के भाल पर। कोह-ए-गराँ = भारी पर्वत। महकूम = दीन-हीन। अहल-ए-हकम = शासकों। अनल-हक = मैं ही सत्य हूँ। मरदूद-ए-हरम = पवित्र स्थानों से वंचित। खल्के-खुदा = ईश्वर निर्मित संसार।


मुझ से पहली सी मोहब्बत
मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग
मैने समझा था कि तू है तो दरख़्शां है हयात
तेरा ग़म है तो ग़मे-दहर का झगड़ा क्या है
तेरी सूरत से है आलम में बहारों को सबात
तेरी आँखों के सिवा दुनिया मे रक्खा क्या है
तू जो मिल जाये तो तक़दीर निगूँ हो जाये
यूँ न था, मैने फ़क़त चाहा था यूँ हो जाये

और भी दुख हैं ज़माने में मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

अनगिनत सदियों से तरीक़ बहीमाना तिलिस्म
रेशमो-अतलसो-किमख़्वाब में बुनवाये हुए
जा-ब-जा बिकते हुए कूचा-ए-बाज़ार में जिस्म
ख़ाक में लिथड़े हुए, ख़ून मे नहलाये हुए
जिस्म निकले हुए अमराज़ के तन्नूरों
पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से
लौट जाती है उधर को भी नज़र क्या कीजे
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे

और भी दुख हैं ज़माने मे मोहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं वस्ल की राहत के सिवा

मुझ से पहली सी मोहब्बत मेरे महबूब न मांग

दुरुख्शां = प्रकाशमान। हयात = जीवन। ग़मे-दहर का = सांसारिक चिंताओं का। आलम = संसार। सबात = स्थायित्व। निगूँ हो जाए = सिर झुका ले। वस्ल = मिलन। तारीक बहीमाना तिलिस्म = अन्धकारपूर्ण पाशविक जादू। रेशम-ओ-अतलस-ओ-कमख्वाब में बुनवाए हुए = एक प्रकार के कीमती वस्त्र। जा-ब-जा = यहाँ-वहाँ। अमराज़ के तन्नूरों = शारीरिक रोगों।

दोनों
जहान तेरी मोहब्बत में

दोनो जहाँ तेरी मोहब्बत में हार के
वो जा रहा है कोई शब-ए-ग़म गुज़ार के

वीराँ है मैकदा ख़ुम-ओ-साग़र उदास है
तुम क्या गये के रूठ गये दिन बहार के

इक फ़ुरसत-ए-गुनाह मिली, वो भी चार दिन
देखे हैं हम ने हौसले परवरदिगार के

दुनिया ने तेरी याद से बेगाना कर दिया
तुझ से भी दिल फ़रेब हैं ग़म रोज़गार के

भूले से मुस्कुरा तो दिये थे वो आज 'फ़ैज़'
मत पूछ वल-वले दिल-ए-ना-कर्दाकार के

ख़ुमो-सागर = शराब का प्याला और मटकी। दिलफरेब = हृदयाकर्षक। ग़म रोज़गार के = सांसारिक ग़म। दिले-नाकर्दाकार= अनुभवहीन दिल।


शेख़ साहब से

शेख़ साहब से रस्म-ओ-राह न की
शुक्र है ज़िन्दगी तबाह न की

तुझ को देखा तो सेर-ए-चश्म हुए
तुझ को चाहा तो और चाह न की

तेरे दस्त-ए-सितम का अज्ज़ नहीं
दिल ही काफ़िर था जिस ने आह न की

थे शब-ए-हिज्र काम और बहुत
हम ने फ़िक्र-ए-दिल-ए-तबाह न की

कौन क़ातिल बचा है शहर में 'फ़ैज़'
जिस से यारों ने रस्म-ओ-राह न की

सेर-चश्म हुए = आँखों की सारी भूख मिट गई। दस्ते-सितम = अत्याचारी हाथ। अज्ज़ = विवशता। शबे-हिज्र = वियोग की रात।


शुक्रवार, फ़रवरी 11, 2011

खुश रहो...कि तुम अश्वेत हो : अनटोजाकी शांगगी

1948 में अमेरिका के एक मध्यम वर्गीय अश्वेत परिवार में जनमी अनटोजाकी शांगगी का मूल नाम तो पौलेट विलियम्स था पर 23 वर्ष की हुईं तो अपनी अश्वेत पहचान को रेखांकित करने के लिए उन्होंने अपना नाम बदल लिया---जुलू भाषा में इस नाम का शाब्दिक अर्थ होता है अपना साजो सामान ले कर शेर की तरह चलने वाला.अन्य अश्वेत कवियों की तरह उनको अपनी कविताओं को स्टेज पर प्रदर्शित करने में बहुत मजा आता है और इसके लिए उन्हें खूब ख्याति और सम्मान पुरस्कार भी मिले.कविताओं के अलावा उनकी ख्याति नाटक और उपन्यास लेखक के रूप में भी है.उनकी रचनाओं का मुख्य स्वर अश्वेत अस्मिता और स्त्री अधिकार की दिशा में जाता है. (चयन, प्रस्तुति एवं अनुवाद : यादवेन्द्र)




मेरे
पिता एक रिटायर्ड जादूगर हैं
मेरे पिता एक रिटायर्ड जादूगर हैं
इसी लिए तो मेरे बर्ताव में इतनी अनगढ़ता है
सब चीजें निकलती हैं
उनके जादुई हैट से
या बिना तल वाली बोतलों से
या फिर रंग बिरंगे तोतों के अंदर से...
ये सब इस कदर सहज होता है
जैसे कहीं से निकल आयें खरगोशों के कई जोड़े
या पचास सेंट के तीन सिक्के...
1958 में मेरे पिता ने जादूगरी से संन्यास ले लिया
और करने लगे दूसरा धंधा
हुआ यह कि तीसरे क्लास की मेरी एक दोस्त
एक दिन औचक ही कर बैठी उनसे फरमाईश...
आपके जादू में है ताकत तो आप मुझे इसी वक्त...
यहीं बना दो...काले से गोरा...
अब इस बेतुकी फरमाईश पर कोई खुद्दार अश्वेत
अमेरिकी करता भी तो क्या करता...
बोलते रहे यूँ ही अगड़म बगड़म
गिल्ली सिल्ली काली कलकत्ते वाली...
और ज्यों की त्यों रख दी चदरिया...
सच ये है कि जादूगरी पर भरोसा रखनेवाले अश्वेत बच्चे
बन जाते हैं राजनैतिक संकट
अपनी ही नस्ल के लिए.
मेरे पिता के हाथों की ताली से
नहीं बन सकता था कोई काले से गोरा
पलक झपकते...वहीँ बैठे बैठे.
मैं आज जितनी अनूठी दिखती हूँ
वो इस लिए कि मैं सीख रही हूँ पिता से
जादू की बारीकियां और तरकीबें...
इन दिनों मैं जो कुछ भी करती हूँ
जादू ही जादू होता है
और ये सब होता है खूब चटक रंग का
आप खुद देखिये कितना गहरा चटक रंग है ये
आप इनके साथ कुछ छेड़छाड़ की कोशिश मत करना...
मालूम है न
मैं ऐसे परिवार की हूँ जिसमें हैं कई
रिटायेर्ड जादूगर और भाग्यवाचक
जानते हो..अकेली नहीं हूँ मैं
चार करोड़ से ज्यादा रूहें और ग्रह नक्षत्र
संगठित होकर खड़े हैं मेरे साथ साथ.
मैं जरुर सुनूंगी तुम्हारी व्यथा कथा
मदद करुँगी जिस से सुधर जाये तुम्हारा
रोजगार,प्रेम,घर परिवार...
कर सकती हूँ ऐसे उपाय
कि स्वर्ग में तुम्हारी दादी और ज्यादा इज्जत के साथ
वास कर सकें...
तुम्हारी माँ सुगमता से
पार कर सकें मेनोपौज की मुश्किलें
और सुधर जाये तुम्हारा बेटा
करने लगे खुद ही अपने कमरे की सफाई.
हाँ...हाँ...हाँ...मन के अंदर धारण करो
कोई तीन इच्छाएं
सब के सब पूरी होंगी...
तुम्हारी लटों के लिए सुर्ख लाल रंग का रिबन
माच्चु पिच्चु का एक मिनिएचर चित्र.
संभव तो है सब कुछ
पर अपने होशो हवास में रहते हुए
कितनी भी नामी गिरामी क्यों न हो
कोई भी जादूगरनी
नहीं बना सकती तुम्हें गोरा...
यदि तुम गोरा होने पर ही आमादा हो
तो मुझे लगता है
तुम्हें दरकार होगी काले जादू की
मैं तो बना सकती हूँ तुम्हें भला और नेक
नेक और अश्वेत
और इसी तरह तुम जीवन भर बने रहोगे
अश्वेत ही
धीरे धीरे तुम्हें यही सब कुछ भाने लगेगा..
ऐसे ही अश्वेत बने रहना
जीवन भर
हाँ..अश्वेत बने रहना...
और खुश रहना इसी हाल में
खुश रहो...
कि तुम अश्वेत हो.

सोमवार, फ़रवरी 07, 2011

सन्तोष

तुम एक बड़ी मछली हो
तुम सिर्फ एक बड़ी मछली हो
तुम्हें चिन्ता है
तुम सबसे बड़ी मछली नहीं हो।

मैं एक छोटी मछली हूँ
मैं सिर्फ एक छोटी मछली हूँ
मगर
मैं अकेली छोटी मछली नहीं हूँ।

मंगलवार, फ़रवरी 01, 2011

फूट आयीं कोंपलें हथियारों के जखीरों की कब्र पर : अश्वनी खण्डेलवाल

नन्ही मुँदी पलकों के पीछे
घुमाते हुए पुतलियाँ
तानकर लाल मुट्ठी हवा में
ले रहा है भरपूर अँगड़ाई
एक नवजात सपना।

कूदकर बिछौने से
दौड़कर जा बैठा
एवरेस्ट की चोटी पर
उठाकर कूची
भर दिये रंग
ठंडे सूरज में
खिल उठी सद्यस्नाता पृथ्वी
हरी धूप में भीगकर
खेलने लगे खो-खो
सारी दुनिया के बच्चे एक साथ

भरकर मुट्ठी में बादल
फेंककर मारा
सहारा के आसमान के चेहरे पर
खिलखिला उठी दामिनी
गुलाबी हो गया पूरा सहारा
कुलाँचे भरीं शावकों ने
पिया भर पेट पानी
पक्षियों ने गाये मल्हार।

ठुमक-ठुमक लगा आया चक्कर
दुनिया का
छुनन-छुनन, छुनन-छुनन बजी पैंजनियाँ
बलैयाँ लीं माँ ने
गुनगुनाने लगीं बंदनवार
झूमकर नाचे मंगलाचार
तंदूर ने किया कत्थक
आज कहीं भी, कोई भी भूखा नहीं सोया
फूट आयीं कोंपलें
हथियारों के जखीरों की कब्र पर।

हाथों में थामकर
एक नर्म-गर्म हाथ
टहला कुछ देर सागर की तली पर
रोंप आया प्रेम-मोती सीप की कोख में
टाँग आया अंतरिक्ष में कंदील
गाजापट्टी पर मिलीं गले
ईद और क्रिसमस।

श्श...ऽ...ऽ...ऽ...
शोर मत करो
यह कुनमुना रहा है।

* 1962 में जन्मे अश्वनी खण्डेलवाल की कविताएँ सात कवियों के संयुक्त कविता-संग्रहसदी का सचमें संकलितहैं। कुछ पुस्तकों का सम्पादन भी किया है। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित होती रहती हैं।
सम्पर्क: 22-प्रेमविहार, मुजफ्फरनगर।
Email : ashwani.khandelwal@rediffmail.com, M : 9837817608