गुरुवार, नवंबर 05, 2020

 विज्ञान व्रत का नया ग़ज़ल संचयन  प्रकाशित 

जुगनू ही दीवाने निकले

अंधियारा झुठलाने निकले
ऊंचे लोग सयाने निकले
महलों में तहख़ाने निकले
में तो सबकी ही जड़ में था
किसके ठीक निशाने निकले
हाथ समझकर पकड़ा जिनको
वो केवल दस्ताने निकले
सभी मित्रों, शुभचिंतकों को यह सूचित करते हुए अपार हर्ष हो रहा है कि हमारे सहज प्रकाशन से प्रकाशित विज्ञान व्रत का ग़ज़ल संचयन
'मेरे वापस आने तक' अब उपलब्ध है। 200₹ मूल्य का यह संचयन प्रकाशक से सीधे मँगवाने पर विशेष छूट के साथ यह Rs. 175 (डाक खर्च सहित) उपलब्ध है। 9760344345 पर paytm करके इसे मँगवा सकते हैं।
यह किताब अमेज़न पर भी उपलब्ध है -
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बुधवार, फ़रवरी 19, 2014

और ज्यादा सपने - वेणुगोपाल


जड़ें

हवा
पत्तों की
उपलब्धि है। खूबसूरती
तो सारी जड़ों की है।

सूचना


फूलों के इतिहास में
दिलचस्पी हो जिन्हें
कृपया बगीचे से
बाहर चले जाएँ -

लाइब्रेरी दाईं तरफ है।

दीमक


(नरेश सक्सेना की एक कविता से प्रेरित आभार सहित)
दीमक जानती है
अपने मूलभूत अधिकार के बारे में

और इसीलिए
वह जा रही है
लाइब्रेरी की तरफ।


होने ही वाली थी क्रांति


होने ही वाली थी क्रांति
परदे पर
कि क्रांतिकारी जी ने टी.वी. आॅफ कर दिया
और होती हुई क्रांति
बीच में ही रुक गयी।

(क्रांतिकारी जी उवाच)
‘‘यह भी कोई कम
क्रांति नहीं है कि होती
हुई क्रांति भी इतनी
कंट्रोल मंे रहे
कि हो रही हो और तभी रोक दी जाये’’

‘‘पर यह असली थोड़े ही थी
परदे की थी।’’ - शंका

(पुनः क्रांतिकारी जी उवाच):
‘‘तो क्या हुआ? आज परदे की
तो कल असली भी। और सुनो,
क्रांति में तर्क की प्रतिष्ठा नहीं होती
असली-नकली की शंकाएँ और विवाद
शांति और भ्रांति के लिए छोड़ दो।’’

थोड़ी देर रुककर और लम्बी सांस के साथ -
‘‘क्रांति की शाश्वत कार्यशाला रहा है यह
अपना देश भारत - और आधुनिक कार्यशाला है अब
तो डेमो जरूरी है और परदे के बिना
डेमो नहीं हो सकता और बिना डेमो के
प्रशिक्षण नहीं होता !’’

बात वक्त तो सही लगी
इतिहास को भी

और डेमो इतने ज्यादा हो रहे हैं कार्यशाला में
कि टी.वी. धड़ाधड़ बिक रहे हैं।

* और ज्यादा सपने, वेणुगोपाल,
   दखल प्रकाशन, 104-नवनीति सोसायटी, प्लाट नं. 51, आई.पी. एक्सटेंशन, पटपड़गंज, दिल्ली-92

गुरुवार, सितंबर 12, 2013

एक लुटी हुई बस्ती की कहानी : निदा फ़ाज़ली


बजी घंटियाँ
ऊँचे मीनार गूँजे
सुनहरी सदाओं ने
उजली हवाओं की पेशानियों की

रहमत के
बरकत के
पैग़ाम लिक्खे—
वुजू करती तुम्हें
खुली कोहनियों तक
मुनव्वर हुईं—
झिलमिलाए अँधेरे
--भजन गाते आँचल ने
पूजा की थाली से
बाँटे सवेरे
खुले द्वार !
बच्चों ने बस्ता उठाया
बुजुर्गों ने—
पेड़ों को पानी पिलाया
--नये हादिसों की खबर ले के
बस्ती की गलियों में
अख़बार आया
खुदा की हिफाज़त की ख़ातिर
पुलिस ने
पुजारी के मन्दिर में
मुल्ला की मस्जिद में
पहरा लगाया।

खुद इन मकानों में लेकिन कहाँ था
सुलगते मुहल्लों के दीवारों दर में
वही जल रहा था जहाँ तक धुवाँ था.

(कविता -कविताकोश से साभार... चित्र अमर उजाला से साभार) 

सोमवार, मार्च 25, 2013

लगभग जीवन : परमेन्द्र सिंह

अधिकांश लोग जी रहे हैं
तीखा जीवन लगभग व्यंग्य

अधिकांश बँट गए से बचे
लगभग जीवन में
अधिकांश पर बैठी मृत्यु

लगभग स्वतंत्र अधिकांश लोगों में
स्वतंत्र होने की चाह
स्वतंत्रता के बाद भी

लगभग नागरिकों की अधिकांशतः श्रेष्ठ नागरिकता
लोकतंत्र का लगभग निर्माण कर चुकी है
अधिकांश लोग लगभग संतुष्ट हैं
शेष अधिकांश से लगभग अधिक हैं।

सोमवार, दिसंबर 31, 2012

इस बार शुभकामना नहीं, शोकगीत !


शोकगीत

एक शोकगीत
उन मछलियों के लिए
जो पानी में रहते हुए भी मर गयीं।

एक शोकगीत
शव के पीछे-पीछे चल रहे दर्जनों लोगों
और सैकड़ों छूट गये शवों के लिए।

एक शोकगीत
उन शब्दों के लिए भी
जो समय की शिला से टकराए बिना
चूर-चूर हो गये।

एक शोकगीत
कहने के बाद शेष रहने की विवशता पर।

बुधवार, दिसंबर 26, 2012

अब भी लौटी नहीं है घर लड़की : ग़ज़लें (अश्वघोष)


अभी हाल ही में वरिष्ठ कवि अश्वघोष का ग़ज़ल-संग्रह राजेश प्रकाशन, अर्जुन नगर, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। उन्हें हार्दिक बधाई देते हुए प्रस्तुत हैं इस संकलन से उनकी तीन ग़ज़लें -

- एक -
अब भी लौटी नहीं है घर लड़की
बन गई है नई ख़बर लड़की

घर के पिंजरे में बंद थी जब तक
नोचती थी बदन के पर लड़की

देखकर छत पे एक सूरज को
हो गई धूप-सी मुखर लड़की

सारा जीवन तनाव सहती रही
घर की इज़्ज़त के नाम पर लड़की

दफ़्तरों में कभी, कभी घर में
ख़त्म होती है किस क़दर लड़की

- दो - 
दुआएँ साथ लाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल
हमारे गाँव आए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

कभी आए न ख़ाली हाथ, देखो आज भी देखो
समंदर साथ लाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

तुम्हारी ही तरह ये भी मुझे अपने-से लगते हैं
सदा दिल में बिठाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

बरसने से ही ये बचते रहे हैं इस दफ़ा भी तो
बहाने साथ लाए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

न बरसे तो भी हम तरसे, जो बरसे तो भी हम तरसे
पहेली बन के आए हैं तुम्हारे गाँव के बादल

- तीन -
मुझमें ऐसा मंज़र प्यासा
जिसमें एक समंदर प्यासा

सारा जल धरती को देकर
भटक रहा है जलधर प्यासा

भूल गया सारे रस्तों को
घर में बैठा रहबर प्यासा

इश्क फ़क़त इक सूखा दरिया
दर्द भटकता दर-दर प्यासा

‘अश्वघोष’ से जाकर पूछो
लगता है क्यूँ अक्सर प्यासा

रविवार, नवंबर 25, 2012

निष्पक्ष सिर्फ पत्थर हो सकता है: अशोक कुमार पाण्डेय













तुमने मेरी उंगलियाँ पकड़कर चलना सिखाया था पिता
आभारी हूँ, पर रास्ता मैं ही चुनूँगा अपना
तुमने शब्दों का यह विस्मयकारी संसार दिया गुरुवर
आभारी हूँ, पर लिखूँगा अपना ही सच मैं

मैं उदासियों के समय में उम्मीदें गढ़ता हूँ और अकेला नहीं हूँ बिल्कुल
शब्दों के सहारे बना रहा हूँ पुल इस उफनते महासागर में
हजारों-हजार हाथों में, जो एक अनचीन्हा हाथ है, वह मेरा है
हजारों-हजार पैरों में, जो एक धीमा पाँव है, वह मेरा है
थकान को पराजित करती आवाजों में एक आवाज मेरी भी है शामिल
और बेमकसद कभी नहीं होतीं आवाजें ...

निष्पक्ष सिर्फ पत्थर हो सकता है, उसे फेंकने वाला हाथ नहीं
निष्पक्ष कागज हो सकता है, कलम के लिए कहाँ मुमकिन है यह?

मैं हाड़-मांस का जीवित मनुष्य हूँ
इतिहास और भविष्य के इस पुल पर खड़ा नहीं गुजार सकता अपनी उम्र
नियति है मेरी चलना और मैं पूरी ताकत के साथ चलता हूँ भविष्य की ओर।

(अशोक कुमार पाण्डेय की यह खूबसूरत कविता आज दिनांक 25 नवम्बर 2012 के अमर उजाला में प्रकाशित हुई है, साभार। अशोक कुमार पाण्डेय का कविता संग्रह ‘लगभग अनामंत्रित’ प्रकाशित हो चुका है और चर्चा में है)